मेरी पुस्तक 'पत्थर की इबारत' प्रेस में चली गई है और कुछ ही दिनों में बाज़ार में आ जाएगी...
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प्रस्तावना:
‘पत्थर की इबारत’ उस काल के मानव जीवन की कथा है जो ईसा से लगभग तीन-चार सौ वर्ष पूर्व भारत के एक राज्य पाटन में फल-फूल रहा था. इस कथा में ऐसी कल्पना की गई है कि उस युग में आज प्रचलित किसी भी धर्म का उद्भव नहीं हो पाया था और अधिकतर लोग सूर्य और अग्नि जैसे ऊर्जा स्रोतों को ही पूजा करते थे. उस काल तक धर्म, जाति या समुदाय के अस्तित्व में ना आ पाने के कारण, सम्राट से लेकर राजा और प्रजा तक कहीं भी किसी भी प्रकार का सामाजिक भेद-भाव नहीं किया जाता था.
तत्कालीन नगरों से दूर, पर्वतों की ऊंचाइयों में फैले हुए घने जंगलों में रहने वाले कबीले के लोगों के लिए सर्वाधिक बहुमूल्य वस्तु नमक हुआ करती थी. वे जंगली जानवरों का शिकार करके अपना पेट पाला करते थे और ज्वार-बाजरा जैसे मोटे अनाज की रोटियाँ बनाकर भी खा लिया करते थे. अपने भोजन के लिए शिकार करना, स्वयं पर आक्रमण किये जाने पर अपनी सुरक्षा करना और आक्रमणकारियों का संहार करना ही उस काल के वनवासियों तथा ग्रामवासियों के प्रमुख व्यवसाय हुआ करते थे.
इस कथा का नायक ‘मिरगाबीर’, बियाबान जंगलों में बसे ऐसे ही एक जंगली कबीले का सरदार था. विशाल काया और हृष्ट-पुष्ट शरीर का मालिक मिरगाबीर जितना खूंखार लड़ाका था उतना ही उदार स्वभाव और मानवाधिकारों के प्रति सचेत मानव भी. पर्वतों की ऊंचाइयों में फैले हुए घने जंगलों में बसे होने के कारण, मिरगाबीर का कबीला मानव जीवन की बुनियादी सुविधाओं और उपभोक्ता सामग्रियों से वंचित रहता था, जो नगरों और महानगरों के राजा-महाराजा और उनकी प्रजा तक पहुँच चुकी थीं.
मिरगाबीर ने अपने पराक्रम, बुद्धिमत्ता और कूटनीति के बल पर, स्थानीय राज्य पाटन और दूर-दूर तक फैले हुए आग्नेयक साम्राज्य तक अपनी पहुँच बना ली थी. मिरगाबीर की जीवनी हमें उस काल से परिचित कराती है जब इंसान अपना जंगली कलेवर उतार कर सभ्य और सुसंस्कृत स्वरूप धारण कर रहा था. कबीले, प्रगति करते हुए गाँवों में परिवर्तित हो रहे थे, गांव, नगरों में और नई-नई धातुओं तथा व्यवसायों की खोज होती जा रही थी.
सामाजिक जीवन में द्रुत गति से विकास हो रहा था; किन्तु मानव इतिहास में पहली बार, कुछ छोटे-मोटे राजाओं और ग्राम-प्रधानों द्वारा, अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु, प्रगति पथ पर बढ़ते हुए मानव जीवन में सामाजिक बुराइयों का समावेश भी किया जाने लगा था. धन और समृद्धि के लोभ में प्रभावशाली पदाधिकारियों ने समाज का विघटन और मानवाधिकार का हनन करना आरम्भ कर दिया था.
यह उपन्यास उन प्रचंड और रोमांचक घटनाओं से रूबरू कराता है, जो ऐसे समाज विरोधी राजाओं और ग्राम-प्रधानों के विरुद्ध चलाए गए सामरिक अभियान और मानवाधिकार की रक्षा करने हेतु, मिरगाबीर और उसके योद्धाओं की सेना द्वारा, पाटन राज्य की ओर से लड़े गए गृहयुद्ध के दौरान घटित हुई थीं.
पाठकों की सुविधा के लिए उपन्यास के अंत में एक परिशिष्ट भी जोड़ा गया है, जिसमें दी गई शब्दावली में कबीले की बोली की असामान्य उक्तियों तथा अन्य अप्रचलित शब्दों के शब्दार्थ उपलब्ध किये गए है.
हरीश झारिया
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Cover Page: Designed and drawn by my son Siddharth Jharia