Harish Jharia

Search This Blog

Translate this article in your own language...

01 November 2011

Hindi Poem: Kshitij Se Aage (Beyond Horizon)


कविता: क्षितिज से आगे…

© हरीश झारिया 

निकल आया हूँ बहुत ही आगे
मीलों पीछे छूट गया है गाँव मेरा  
कितने ही ठौर आए और छूटते गए
नहीं रुका सिलसिला सफर का 
बड़ा ही लंबा लग रहा है सफ़र अपना

दिख तो रहा है रास्ता दूर तक पीछे का  
दिखता नहीं मगर, वो बसेरा जहाँ रुका था कभी
नहीं दिख रही है वो मिट्टी, जिसे सँवारा था मैंने
रोपे थे पौधे फूलों के, रंग-सुगंध की आस में
और महीनों करता रहा था प्रतीक्षा उनके बढ़ने की 

गुज़र गए हैं वो पल जब मूर्छित हुआ था मैं
फूलों की जगह पाकर कांटों के गुच्छों को  
तेज़ हवा के थपेड़ों में जब डालों ने झूमकर 
कर दिया था लहूलुहान कंटीले गुच्छों से
अदृष्य हो गया है दृष्य मेरे स्वप्न-भंग का
और अपने ही उद्यान से महा पलायन का 

पहुंच गया हूँ आज, जहाँ दिख रहा है अंत धरती का
आ गया है वह अंतिम छोर रुक जाती हैं जहाँ घड़ियाँ 
और पसरा हुआ है असीम, अनन्त ब्रह्माण्ड 
विकट गहरा अंधेरा अंतरिक्ष वीरान 

नहीं बचा है कुछ भी, ना मन में ना जीवन में 
अंततः बढ़ा दिया है वह अंतिम कदम मैंने 
लो छूटती जा रही है धरती पीछे, बहुत पीछे
और गिर नहीं रहा हूं नीचे, उड़ चला हूँ ऊपर की ओर 
ऊपर, और बहुत ऊपर…

-------------------------------------------------------------------
npad

No comments:

Post a Comment