Exclusively written for 'Discover Life'
कहानी: सपनों का घर
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Copyright © 2009 [Harish Jharia] All Rights Reserved
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© हरीश झारिया
कहानी कहते-कहते माँ सो जाती थी और मैं कहानी में आगे होने वाली संभावित घटनाओं की कल्पना करता हुआ जागता रहता। मां की कहानियों में अक्सर एक राजा हुआ करता था जो अपनी रानी और राजकुमार को घर में छोड़कर कहीं दूर खजाने की खोज में चला जाता था। मुझे ऐसा लगता जैसे वह राजा, और कोई नहीं, बल्कि मेरे बाबा हों जो ढेर सारे पैसे लेने परदेस गए थे। मैं कल्पना करता कि जब बाबा पैसे लेकर आएँगे तो फिर मां रोया नहीं करेगी। जब देखो तब कहती रहती थी…
“पैसे नहीं हैं… पैसे नहीं हैं”
तब मैं नहीं जानता था कि पैसे क्या होते हैं। पर यह कहानी मुझे बड़ी पसन्द थी क्योंकि कहानी के अंत में राजा खजाने को हासिल कर लेता है और उसके परिवार में सारी ख़ुशियाँ लौट आती हैं। मेरे मन के किसी कोने में बिना पिता का परिवार अधूरा सा लगता था। अकेली मां का संघर्ष खटकता था। गांव से दूर, खेतों से घिरे एकाकी मकान का जीवन कुछ अजीब सा लगता था जहां मां और मेरे सिवा और कोई नहीं होता था।
इन सारी बातों की अस्पष्ट सी यादें मेरी स्मृति में आज भी बाकी हैं, क्योंकि तब मैं लगभग चार-पांच साल का था। मैं मां के साथ खाट पर सोया करता था। नींद आने के बाद मां की सांसों की आवाज़ सुनाई पड़ने लगती थी तो मैं डर जाया करता था और मां से लिपट जाया करता था। नींद में भी मां को मेरे हिलने का पता लग जाता और वह मुझे अपने पास खींच लेती थी। मुझे पता ही नहीं चलता और नींद आ जाती थी।
मां और मैं एक छोटे से घर में अकेले रहते थे। गांव के बाकी घर काफ़ी दूर थे। एक कमरा था, एक रसोई थी और चारों ओर बरामदे थे। ऊपर खपरैल का छप्पर था जो बरामदों तक सागौन के खम्भों के सहारे टिका हुआ था। घर के चारों ओर हमारे खेत थे जिनमें दिन भर मां काम करती रहती थी। पीछे के बरामदे में एक गाय बंधी रहती थी। सामने एक कुआं था और पास ही था एक तुलसीकोट। सुबह मां नहाने के बाद तुलसी में जल चढ़ाती और उसकी परिक्रमा करती थी। शाम के समय फिर मां वहां दिया जलाती जिसकी लौ देर रात तक टिमटिमाती रहती थी और अगरबत्ती की सुगन्ध से वातावरण महकता रहता। मैं हर समय और हर जगह मां के आस पास ही रहता था। ज़रा सा आंखों से ओझल हुआ नहीं कि बस मां घबरा जाती और पुकारने लगती…
“ओ रे… भैया… कहां गया रे”
जब मां मुझे ढूँढती तो मुझे बड़ा अच्छा लगता था मैं दौड़ कर उसके पैरों से लिपट जाया करता था। मैं वज़न में काफ़ी भारी था। मुझे उठाने में मां को बड़ी मुश्किल जाती थी पर वह कभी-कभी मुझे उठा ही लेती थी। मुझे उसकी गोद में स्वर्ग का सुख मिलता था। मां कहती रहती थी…
“बहुत कम खेत हैं हमारे पास …”
यह मैं नहीं जानता था कि खेतों के कम या ज्यादा होने से क्या फ़र्क पड़ता है । मुझे तो ऐसा लगता था कि जितने कम खेत होंगे मां को उतना ही कम काम करना पड़ेगा और उतना ही अधिक वह मेरे साथ रहेगी।
मां पोस्टमैन के आने की प्रतीक्षा करती रहती थी। बाबा की चिट्ठी जो लाता था वह। पोस्टमैन कभी-कभी पैसे भी लाता था जो बाबा भेजा करते थे। जब चिट्ठी आती तो मां रोती और रात में उठ-उठ कर चिट्ठी पढ़ती थी। पैसे आने पर वह और ज्यादा रोती और रात में बार-बार रो-रो कर पैसों को गिना करती। फिर सुबह होने पर उसके चेहरे पर मुस्कुराहट देख मैं खुशी से उछल पड़ता और दौड़ कर उसके पैरों से लिपट जाता। उस दिन मां आलू के परांठे बनाती थी या कभी-कभी पकौड़े तलती। फिर मुझे साथ लेकर गांव जाती और थैले भर-भर कर दुकान से सामान खरीद कर लाती। उसके बाद कई दिनों तक मां बड़ी खुश रहा करती थी।
दो वर्ष पहले बाबा आए थे। तब की मुझे याद नहीं है क्योंकि मैं छोटा था। मां बताती है कि उन्हीं दिनों बाबा ने बिजली और बोरवैल लगवा दिए थे। तब से मां की सिंचाई के लिये की जाने वाली मेहनत बचने लगी थी और घर में उजाला हो गया था। मां कहती कि हमारा ट्रैक्टर आ जाता तो काम करने में आसानी हो जाती। फिर बाबा भी परदेस से वापस आकर हमारे साथ ही रहने लगते। मां हर समय बाबा के लौटने के बाद के दिनों की कल्पना करती रहती थी। कहती…
“बाबा ट्रैक्टर से खेती करेंगे, मैं चलाउँगी घर और तू जाना स्कूल और पढ़ लिख कर बनना… बड़ा बाबू”
मां का मानना था कि बाबा स्वस्थ और आकर्षक व्यक्ति थे और मेरी शक्ल और काठी भी ठीक उन्हीं की तरह थी। इस बात का मतलब मैं नहीं समझता था। पर ऐसा लगता था कि वह मेरे और बाबा के बारे में कुछ अच्छा कहती थी क्योंकि यह कहते वक्त मां का चेहरा खुशी से दमकने लगता था। मैं यह सुनकर मन ही मन बड़ा खुश होता था और बाबा से मिलने और उन्हें देखने के लिये उत्सुक हो जाता।
मां कहती थी कि जब पिछली बार बाबा आए थे तो लगभग एक माह तक रहे थे। हर समय मुझे गोद में उठाए रहते थे। साथ में सुलाते, नहलाते और अपनी गोद में बिठाकर खाना खिलाते थे। जब वह जाने लगे थे तो सुबह से ही मुझे अपने सीने से लगाए रहे और विदा होते समय उदास हो गए थे। मां कहती थी कि उनकी चिट्ठियों में ज्यादातर मेरे बारे में ही लिखा रहता था और वह मुझसे मिलने के लिये तरसते रहते थे।
जैसे-जैसे मैं बड़ा हो रहा था वैसे-वैसे मेरे मन में बाबा को देखने और उनसे मिलने की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। मैं जब-तब मां से कहता कि बाबा को जल्दी आने के लिए चिट्ठी लिखे। यह सुनकर मां रोने लगती और मुझे पश्चाताप होता क्योंकि यह बात कहने की गलती मुझसे बार-बार हो जाया करती थी। तब मां खींच कर मुझे अपने गले से लगा लेती थी और देर तक सुबकती रहती थी।
मां की आंखें बड़ी-बड़ी थीं, उनमें ढेर सारे आंसू भरे थे जो कभी भी बहने लगते थे। मैं अपने हाथों से उसके आंसू पोंछ्ता लेकिन वह थमने का नाम नहीं लेते थे। मां रोना छोड़ डबडबाई आंखों से मेरी आंखों में देखने लगती और उसके चेहरे पर मुस्कान जैसी आ जाती थी… और भरे गले से कहती-
“बड़ा सयाना हो गया है रे…”
मैं सोचता कि अब की बार जब मां मेरे आंसू पोंछेगी तब मैं भी ऐसा ही कुछ कहूँगा। मैं सब कुछ मां ही से सीख रहा था। उठना बैठना, खाना पीना, बातचीत और अन्य सब बातें मां की ही नकल करके मैने सीखी थीं। मैं मां कि परछांई की तरह हरदम उसके ही इर्दगिर्द मँडराता रहता था। कुछ देर अगर मां नहीं दिखती तो मैं बेचैन हो जाता और रोने लगता था।
मां जब खेतों में काम करने जाती तो मुझे साथ में ले जाया करती थी और छतरी पकड़ा कर अपनी आंखों के सामने बिठाए रखती थी। मां पसीने में तर-बतर हो जाया करती और उसका चेहरा लाल हो जाया करता था। उसके हाथ पैर मिट्टी में सन जाते और बाल उलझ कर बिखर जाते थे। मैं छतरी में से उसे आवाज लगाता…
“मां… मुंह पोछ ले…”
जवाब में मां हंस देती थी। दौड़ कर मेरे पास आती और पोटली में से एक रोटी निकालकर मेरे हाथ में पकड़ा देती। गजब की फ़ुर्ती और ऊर्जा थी माँ के शरीर में। मैंने उसे कभी थक-हार कर निढाल बैठे हुए नहीं देखा।
पोस्टमैन दोपहर में आया करता था। मां कई दिनों से रोज उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। सामने के बरामदे में दीवार से टिक कर बैठ जाती थी और घर के सामने पेड़ों के झुरमुट की ओर टकटकी लगाए देखती रहती। आखिरकार एक दिन पेड़ों के पीछे मोड़ से पोस्टमैन की साइकिल अवतरित हुई तो मां चौंककर उठ-खड़ी हुई और बरामदे के खम्भे से टिककर देखने लगी कि पोस्टमैन किस तरफ़ का रुख करता है और जैसे ही वह हमारे घर की ओर मुड़ा, उसके मुंह से हल्की सी चीख निकल गई। मैं दौड़कर उसके पैरों से लिपट गया और मां ने मुझे कस कर पकड़ लिया।
पोस्टमैन आया, उसने चिट्ठी और पैसे मां को दिये और पानी पीकर चला गया। चिट्ठी पढ़कर मां खुशी से पागल हो गई। मेरे गालों को अपनी हथेलियों में लेकर उसने मेरा माथा चूम लिया और कहा…
“ऐ…रे भैया…! बाबा कल आ रहे हैं… और सुन रे…! वो फिर कभी हमें छोड़ कर नहीं जाएंगे… सुना तूने…?”
मां दौड़ कर भीतर गई, कलैन्डर ले आई और फ़र्श पर बिछा कर बार-बार दिनों और तारीखों पर उंगली फिराती रही। कभी हंसती थी तो कभी ठोढ़ी पर उंगली रख अपने आप से बातें करने लगती। मैंने माँ को इससे पहले कभी हँसते हुए नहीं देखा था। यह मैने पहली बार देखा कि मां हँसती हुई कैसी लगती थी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं कभी मां को देखता, कभी कलैन्डर को तो कभी बाबा की चिट्ठी को।
बाबा बस से आने वाले थे। बस के निकलने का रास्ता हमारे घर से दिखता तो नहीं था पर अधिक दूर भी नहीं था। पर मैने तब तक बस नहीं देखी थी। उस दिन बाबा आने वाले थे। मां कान लगाए बस की आहट ले रही थी। उस दिन मैने भी सुनने की कोशिश की और पहली बार मेरे कानों में गाड़ियों की आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं। मां गरदन तिरछी करके सुनती और बताती कि यह ट्रैक्टर की आवाज़ है और मैं सर हिला कर कहता…
“हूं…”
बाबा के आने का समय पास आता जा रहा था। मां और मैं एड़ियां उठा-उठा कर दूर तक देखने की कोशिश कर रहे थे। एकाएक मां ने देखा कि बाबा आ रहे हैं। मां दौड़ पड़ी और थोड़ी दूर जाकर ठिठक गई। मैं भी मां के पास जाकर उसके पैर पकड़ कर उसके पीछे से झांक कर बाबा को देखने की कोशिश करने लगा।
शाम की धूप में पेड़ों की परछाइयां दूर तक फैल गई थीं। बाबा का चेहरा सीधी धूप पड़ने से दमक रहा था। वे बहुत लम्बे चौड़े थे। इतना विशाल आकार अभी तक मैने किसी का नहीं देखा था। मां के पैर कांपने लगे थे और मैं उसके पीछे छुपने लगा था। तभी बाबा की आवाज़ आई…
“कैसी हो…”
उनकी आवाज़ बड़ी मीठी थी। मेरा मन करने लगा कि उनके पास जाऊँ और उनको छू लूँ। इसी बीच उन्होंने अपने मजबूत हाथों से मुझे गोद में उठा लिया और ध्यान से मेरा चेहरा देखने लगे।
उनके पीछे एक ट्रैक्टर में उनका सामान लदा था। बाबा ने मुझे नीचे उतारा और ट्रैक्टर से सामान उतरवाकर एक तरफ़ के बरामदे में रखवाने लगे। पूरा बरामदा हमारे सामान से भरता जा रहा था।
मैं मां का हाथ पकड़े खड़ा था और मां ने बरामदे के खम्भे का सहारा ले रखा था। मैंने मां से पूछा…
“मां… यह सारा सामान कहां रखेंगे…?”
सुनकर बाबा बोले…
“बड़ा मकान बनवाएंगे… सारा सामान आ जायगा…”
सामान के साथ एक मोटरसाइकिल और बिजली का पंखा भी था जिन्हें देख मैं खुशी से उछल पड़ा और उनकी ओर उंगली दिखाकर बोला…
“मां… देख…देख तो…!”
मां ने मेरे गाल पर हल्की चपत लगाते हुए कहा…
“चुप कर… शैतान”
बाबा ने सर घुमा कर देखा और हंसने लगे।
काम समाप्त होते-होते दिन डूब गया। मां की रसोई से खाने की खुशबू आने लगी थी। सब्जी में राई-जीरे के तड़के की, हरी-धनिया हरी-मिर्च की चटनी की और आग पर रोटियों के सिकने की सुगन्ध से मेरे मुंह में पानी भर आया।
बाबा ने पंखे का तार लगाया, बटन दबा दी और पंखा चल पड़ा। पहले भी मैने दुकानों पर पंखा देखा था पर उसकी हवा का अनुभव मुझे पहली बार हुआ। बाबा पालथी मार कर फर्श पर बैठ गए। मां ने उनके सामने थाली परसकर रख दी। बाबा ने मुझे पास में बुलाया और सामने बिठा लिया। बाबा के साथ खाने में मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था पर मेरा ध्यान पंखे के साथ घूमता-घूमता मोटरसाइकिल के साथ उड़ान भरने लगा। मैं सोचने लगा कि बाबा कब मोटरसाइकिल पर बिठाकर मुझे घुमाने ले जाएंगे।
मां गैस के चूल्हे पर रोटियाँ सेक-सेक कर गरम-गरम बाबा की थाली मे परसती जा रही थी। मां का चेहरा खुशी से दमक रहा था। बाबा शहर के संस्मरण सुनाते जा रहे थे और यह भी कि वहां मां और मुझे एक पल के लिये भी नहीं भूले थे। बाबा की बातें खतम होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। मां कुछ नहीं बोल रही थी केवल उसकी पायल और चूड़ियों की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी।
मां और बाबा दौनों को एक साथ पाकर मुझे एक अलग तरह की खुशी और परम संतोष का अनुभव हो रहा था। मुझे पता ही नहीं चला कि कब मुझे बाबा ने उठाकर अपनी गोद में सुला लिया और कब मेरी आंख लग गई।
सुबह जब मेरी आंख खुली तो मैंने अपने आप को बरामदे में बाबा के साथ खाट पर सोया हुआ पाया। मां उठकर स्नान कर चुकी थी और तुलसी में जल चढ़ा रही थी। उसकी पायलों और चूडियों की आवाज़ में उस दिन एक अलग सी खनक सुनाई पड़ रही थी। मैंने सर घुमाकर मां की ओर देखना चाहा तो बाबा ने मुझे अपनी ओर खींचकर चिपटा लिया। तब मुझे पता चला कि बाबा जागे हुए थे। मेरा सर बाबा के सीने पर रखा हुआ था और मैं उनकी सांसों की आवाज़ साफ़-साफ़ सुन रहा था। बाबा का मजबूत हाथ मेरे गिर्द लिपटा हुआ था। मुझे लगा कि ऐसे ही बाबा के साथ चिपटा रहूं कि तभी मां ने मुझे आवाज लगाई…
“ओ रे… भैया… अब उठ भी जा… और कितना सोएगा…?”
मैने सर उठा कर बाबा की ओर देखा, बाबा ने भी मेरी ओर देखा; वह हंसे और मुझे अपनी बांह में पकड़े-पकड़े उठ खड़े हुए। उन्होंने मुझे अपनी पीठ पर बिठा लिया और बोरवैल की ओर दौड़ पड़े। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं चिड़िया की भांति हवा में उड़ रहा होऊं। मैं दौनों हाथों की मुट्ठियाँ आकाश की ओर तान कर मारे खुशी से चिल्ला पड़ा…
“हो…हो…हो…हो…
मैंने और बाबा ने बोरवैल के पानी में खूब नहाया। बाबा ने रगड़-रगड़ कर मेरे हाथ पैर साफ़ किये, तौलिये से पोछा और कपड़े पहनाकर कंधे पर बिठा दौड़ते हुए घर ले आए। जैसे-जैसे घर पास आ रहा था आलू के परांठे की सुगंध बढ़ती जा रही थी। दरवाजे के भीतर प्रवेश करते ही मुझे कस-कर भूख लग आई।
हम दौनों जैसे ही रसोई के फर्श पर जाकर बैठे मां ने एक थाली में आलू के परांठे और एक कटोरी में दही लाकर रख दिया। बाबा ने पहला निवाला तोड़कर मुझे खिलाया और फिर हम दौनों देर तक परांठे खाते रहे।
पेड़ों की छाया सिकुड़ने लगी थी और धूप में तीखापन आ गया था। बाबा और मैं आगे के बरामदे में खाट पर बैठे बातें कर रहे थे। बाबा ने सामने पेड़ों के झुरमुट के पीछे से दो मोटरसाइकिलें आती हुई देखीं। मां को भी इसकी आहट मिल गई। उसने दरवाज़े की ओट से झांककर देखा तो आगबबूला हो गई। उसके मुंह से गुर्राहट सी निकली…
“लो… मिल गई इन निठल्लों को खबर… आपके आने की…! चोर… उठाइगीर हैं… पक्के नसाखोर… इस्मैक चल रही है… गांव में इस बखत… आप भी जादा मुंह ना लगाना इनको…”
मां बड़बड़ाती और पैर पटकती हुई आई और मुझे हाथ पकड़ कर घसीटती हुई भीतर ले गई, दरवाजा बंद कर लिया और जरा सा खोलकर बाहर की ओर झांकने लगी कि बाबा और उन आगंतुकों के बीच क्या कुछ हो रहा था। मैं भी उसकी गोद में बैठकर दरवाजे की झिरी से देखने लगा।
वे चार लोग थे और दो मोटरसाइकिलों पर आए थे। आते ही उन लोगों ने बाबा के पैर छुए और सम्मानजनक मुस्कुराहरट के साथ उनसे बातें करने लगे। बाबा ने उन्हें अपने साथ खाट पर बैठने के लिए कहा तो वह मना करते हुए फर्श पर बैठ गए। कुछ देर बातें होती रहीं। फिर बाबा ने उनमें से एक को मोटरसाइकिल की चाभी दी। वह खुशी-खुशी गया और मोटरसाइकिल को चालू करने लगा। वह नहीं चली तो उसने अपनी गाड़ी से पैट्रोल निकाल कर उसमें डाला तो बाबा की मोटरसाइकिल चल पड़ी।
वे चारों कुछ देर बाबा से बात करते रहे फिर उन्हें मिठाई का डिब्बा देकर चले गए। बाबा ने भीतर आकर बताया कि वह देवी का प्रसाद था और वे यही देने आए थे। मां की भवें तब भी क्रोध से तनी हुई थीं। दौनों ने प्रसाद खाया मुझे देने लगे तो वह फर्श पर गिर गया। मैं वैसे भी मीठी चीज़ें नहीं खाता था। बाबा उठाकर देने लगे तो मैने हाथ से उसे हटा दिया। बाबा ने भी कहा…
“चल कोई बात नहीं… नीचे गिर गया… छोड़… मंदिर चलेंगे तो प्रसाद खा लेना…”
बाबा ने मां की ओर देख मुस्कुरा कर उसके क्रोध को शांत करने का प्रयास किया तो मां जहां बैठी थी वहीं दूसरी ओर मुंह करके लेट गई। बाबा ने मुझे गोद में उठाया और वे भी मुझे लेकर वहीं फर्श पर पसर गए। मैं माता पिता के बीच लेटा मन ही मन खुश हो रहा था कि कब से मां इस क्षण की प्रतीक्षा कर रही थी कि बाबा हों, वह हो, मैं होऊँ और हमारा यह घर हो। उस दिन सब कुछ था हमारे पास।
खपरैल के छप्पर में जगह-जगह से धूप की रेखाएं नीचे तक खिची थीं और फर्श पर प्रकाश के गोल-गोल वृत्त बना रही थीं। आलू के परांठों का स्वाद अब भी मेरे मुंह में मौजूद था और मैं सोच रहा था कि काश माँ रोज ही आलू के परांठे बनाती। मां एक बड़ा अच्छा काम करती थी कि कुछ परांठे बचा कर रख देती थी जो हम लोग दूसरे पहर चाय के साथ खाते थे। मुझे चाय बड़ी अच्छी लगती थी। यही एक मीठी चीज़ थी जो मैं पसन्द करता था। मगर बाकी दिन शाम की चाय के साथ सूखी रोटी मैं बेमन से खाता था।
लगता था मां और बाबा सो गए थे। उनकी लम्बी-लम्बी सांसों की आवाज़ आ रही थी। मैं बाबा के मजबूत सीने से टिक कर बैठ गया और अपने आप से बातें करने लगा। बाबा ने अपना हाथ उठाया और मुझे टटोल कर फर्श पर फिर फैला दिया। सामने वाला दरवाजा उढ़का हुआ था और हवा से हिल रहा था। उसमें लटकी सांकल खनक रही थी। मैने गरदन घुमाकर देखा। दरवाजा खुलना शुरू हुआ तो खुलता ही गया और सुबह वाले चारों लोग फिर दरवाजे पर खड़े हुए दिखे। मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ जब वे सीधे भीतर घुसते चले आए और कमरे के बीचोंबीच खड़े होकर चारों ओर हरेक चीज़ को ध्यान से देखने लगे।
उनमें से एक की नज़र मां की सन्दूक पर पड़ी और चारों के चारों एक साथ संदूक की ओर लपके। वे आपस में बात करते जा रहे थे…
“जे छोरा तो जागे है…?”
“बकवास ना कर… माल निकाल और भाग ले”
मैंने बाबा को हिलाया पर वे करवट बदल कर फिर सो गए। उन लोगों ने संदूक को तोड़ना शुरू कर दिया, शोर होने लगा मगर मां और बाबा गहरी नींद में सोते रहे। मैं बाबा से लिपट कर सांस रोक कर दुबक गया। मेरी आवाज़ गुम हो गई थी और आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी। संदूक टूट गई और उनमें से एक ने संदूक में से एक बड़ा सा बंडल निकाल लिया। चारों खुशी से पागल हो गए और क्षण भर में कमरे से बाहर भाग गए।
मुझे बाहर मोटरसाइकिलों के चालू होने की आवाज़ सुनाई पड़ी तो मैं अपने आप को रोक नहीं पाया। आंखें पोंछता हुआ दरवाजे पर आया तो देखा कि वे लोग जा चुके थे और बाबा की मोटरसाइकिल भी गायब थी। मैं घबराकर चारों ओर देखने लगा। एक तरफ के बरामदे में बाबा का सामान रखा था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। धूप बहुत तीखी हो गई थी और दोपहर की पेड़ों की छाया पेड़ों में ही समा गई थी। । मुझे भूख लग आई थी। मैं बरामदे के खम्भे से टिक कर बैठ गया और जोर-जोर से रोने लगा।
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Synonims: संतोष= satisfaction; सांसों= breaths; चिपटा= clinging; दही= curd; आगबबूला= furious; गुर्राहट= aggressive voice; निठल्लों= jobless उठाइगीर= thieves; नसाखोर= addicts; इस्मैक= smack drug; बड़बड़ाती= blabburing; घसीटती= pulling, dragging; झिरी= orifice, recess; भवें= eye brows; शांत= क्षण= moment; धूप की रेखाएं= beams of sunlight; वृत्त= circles; आलू= potato; विश्वास= belief; संदूक= iron trunk; बकवास= worthless talk; अविरल= ceaseless
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Brief introduction of the short story:
© Harish Jharia
With the advent of modernization in India the urban areas have started prospering; whereas, on the other hand, the rural areas stayed backward. The farmland area has reduced and as a result of the same the agricultural land left with each farmer has also reduced to the minimum. The educated rural youths are neither getting jobs nor are they left with the ability to work on farms and grow agricultural products.
Eventually the rural youth has migrated to the urban areas especially to the big cities and metros for earning fortunes and improves upon the way of their lives back home in their villages. This short story Dream house (Sanon kaa Ghar) has been written based on the life of a village youth who ventured out to a metro city for earning his livelihood and enough money to buy a house and modern agricultural appliances like tractor, bore well etc. the story tells about the life of the wife and son of that youth who were left back in the village with dreams of having their own house to live.
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npad
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